Sunday, January 20, 2013

Shri Ram Stuti

KRISHNA Magical Experience - MANMOHANA MORA KRISHNA - Singer Jitesh Lak...

प्रतिरोध का एक विस्मृत अध्याय


प्रतिरोध का एक विस्मृत अध्याय

सातवीं शताब्दी में दो चीनी बौद्ध विद्वानों ने देवभूमि भारत की यात्रा की। इनमें से एक ह्वेन-सांग शताब्दी के आरंभ में आए तो दूसरे इÏत्सग शताब्दी के अंत में। ह्वेन-सांग 629 ईस्वीं में चीन से पचिमी स्थल मार्ग से होते हुए आधुनिक अफगानिस्तान में स्थित बामियान के प्रवेश द्वार से भारत में घुसे और 643 ई. तक लगभग पूरे भारत का भ्रमण करके उसी मार्ग से वापस लौटे। दूसरे विद्वान इत्सिंग ने पूर्व दिशा से समुद्री मार्ग पकड़ा और वे दक्षिण पूर्वी एशिया के अनेक देशों व द्वीपों से होकर ब्राह्मदेश (जिसे कुछ वर्ष पूर्व तक बर्मा कहा जाता था और अब म्यांमार कहा जाता है) में प्रविष्ट हुए। ह्वेन-सांग ने पूरे मध्य एशिया में भारत में जन्मी बौद्ध धारा को प्रवाहमान देखा। भारतीय बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों, भारतीय भाषाओं एवं मूर्ति-पूजक संस्कृति का वर्चस्व उन्हें सब ओर दिखाई दिया। उन्होंने अपने यात्रा-वृत्त को "पचिमी वि·श्व का वर्णन" जैसा नाम दिया। इससे विदित होता है कि उस समय चीन नाम से अभिहित भू-भाग आज के समान भारत की सम्पूर्ण उत्तरी सीमाओं पर फैला नहीं था अपितु पूर्व के किसी कोने में सिमटा हुआ था, जबकि भारतीय संस्कृति का प्रमाण पूरे मध्य एशिया में चीन की सीमाओं तक छाया हुआ था। ह्वेन-सांग ने अपने यात्रा-वृत्त में भारत को "ब्राह्मणों के देश" नाम से सम्बोधित किया है। यदि ह्वेन-सांग ने पचिम दिशा में भारतीय संस्कृति के प्रभाव क्षेत्र का चित्रण किया है तो इÏत्सग ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के सभी देशों और द्वीपों को पूरी तरह भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे देखा। उसने भी इस पूरे क्षेत्र को "ब्राह्मण संस्कृति का प्रदेश" जैसा नाम दिया है।
ह्वेन-सांग ने भारत की ओर बढ़ते हुए मध्य एशिया के अग्नि (काराशहर), कूची, भारुक (अक्सुह), काशगर, खोतान आदि सभी स्थानों में बौद्ध धारा का व्यापक प्रभाव, भारतीय लिपियों एवं ग्रन्थों का प्रचलन देखा। धुर पूरब में स्थित तुरफान से लेकर काशगर तक उसने सैकड़ों बौद्ध विहारों और मंदिरों का अस्तित्व देखा।
थोड़ा दक्षिण दिशा में चलकर ह्वेन-सांग उस प्रदेश में प्रविष्ट हुआ जिसे आजकल अफगानिस्तान के नाम से जाना जाता है। उससे लगभग तीन शताब्दी पूर्व एक अन्य चीनी यात्री फाहियान ने उद्यान या स्वात नदी की घाटी का वर्णन करते हुए लिखा था, "यह क्षेत्र निस्संदेह उत्तरी भारत का भाग है। यहां के सभी निवासी मध्य देश की भाषा का प्रयोग करते हैं। आम लोगों की वेशभूषा और खान-पान मध्य देश जैसा ही है। भगवान बुद्ध का शासन यहां सर्वमान्य है।" सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में ह्वेन-सांग ने लमघान, जलालाबाद, स्वात घाटी आदि पूरे क्षेत्र में यही समाज- जीवन देखा। उसके समय में यह सभी क्षेत्र भारत का अंग माना जाता था। भारत का प्रवेश द्वार हिन्दूकुश पर्वत पर स्थित बामियान दर्रे से होकर था। यह दर्रा काबुल घाटी को बलख-बुखारा से जोड़ता था। भारत आने वाले सभी यात्रियों, व्यापारियों का यह महत्वपूर्ण विश्राम स्थल था। वहां का राजवंश अपना उद्गम भगवान बुद्ध की जन्मस्थली कपिलवस्तु को मानता था। ह्वेन-सांग ने बामियान क्षेत्र में हजारों बौद्ध भिक्षुओं से भरे हुए अनगिनत विहारों को देखा। उसने वहां पहाड़ियों को काटकर बनाई हुई अनेक गुफाओं को देखा, दर्रे के दोनों सिरों पर पहाड़ी को काटकर बनाई गई बुद्ध की विशाल ऊंची प्रतिमाओं को देखा। ये प्रतिमाएं मध्य एशिया में सैकड़ों मील दूर से दिखाई देती थीं और भारत आने वाले यात्रियों को सही दिशा-बोध कराती थीं। वहां का राजा उन दिनों बौद्ध धर्मावलम्बी था और हर्षवर्धन के समान पंचवर्षीय उत्सव का आयोजन करता था।
इस्लाम की पताका
बामियान के दक्षिण में स्थित कपिशा, जिसका नामकरण बाद में काफिरिस्तान हो गया, बहुत शक्तिशाली राज्य था, जिसके अधीन सिन्धु नदी तक फैले हुए दस छोटे-छोटे राज्य थे। वहां का राजा क्षत्रिय था, श्रद्धावान बौद्ध था। वहां लगभग 100 विहारों में 6000 से अधिक बौद्ध भिक्षु विद्यमान थे। वहां बुद्ध के अतिरिक्त अन्य पौराणिक देवी-देवताओं के मंदिर भी बड़ी संख्या में थे। संस्कृत भाषा का प्रचलन था। वर्णव्यवस्था का अस्तित्व था। हजारों वर्ष पहले व्याख्यायित भारत वर्ष की सीमाओं के अन्तर्गत इस क्षेत्र को गिना जाता था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सिकन्दर के समय भी इस क्षेत्र को भारत के पांच खण्डों में से उत्तरापथ के अन्तर्गत रखा जाता था। औरंगजेब के समय तक इस प्रदेश को जीतने के लिए संघर्ष चलता रहा। औरंगजेब के आदेश पर जोधपुर के राजा जसवंत सिंह उसे जीतने गये थे। 1759 में जब मराठों ने पंजाब को मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त कराकर अटक के किले पर भारत का ध्वज फहराया तब भी इस विजय अभियान के नेता राघोबा (रघुनाथ राव) ने अपने बड़े भाई पेशवा बाला जी बाजीराव को पत्र लिखा था कि काबुल को जीतने के बाद ही भारत की मुक्ति का हमारा सपना पूरा हो सकेगा। भारत की प्राकृतिक सीमाओं को अफगानिस्तान के पचिमी प्रदेश हिरात में मानने के कारण ही अंग्रेजों ने इस प्रदेश को जीतने के कई असफल प्रयास किये।
किन्तु आज तो वही प्रदेश तालिबानी कट्टरवाद के साया में जी रहा है। यही प्रदेश 1979-80 में सोवियत सेनाओं की पराजय और अन्ततोगत्वा सोवियत संघ के विघटन का कारण बना। इसी प्रदेश ने ओसामा बिन लादेन को शरण दी और उसके जिहादी संगठन को आधार प्रदान किया। और अब यही प्रदेश अमरीका और "नाटो" की सेनाओं के गले की हड्डी बना हुआ है। उनसे न निगलते बन रहा है, न उगलते।
सातवीं शताब्दी में जो क्षेत्र भारतीय संस्कृति की पताका फहरा रहा था वह आज इस्लाम की पताका क्यों फहरा रहा है? इस प्रन का उत्तर खोजने के लिए हमें पुन: सातवीं शताब्दी में लौटना होगा।
जिस समय ह्वेन-सांग चीन से भारत आने की तैयारी कर रहा था, लगभग उसी समय अरब के रेगिस्तान में एक नई विचारधारा और उपासना पद्धति आकार ले रही थी। इस विचारधारा के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद ने ईस्वीं सन् 632 में अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक कबीलों में बंटे हुए अशिक्षित खानाबदोश, आपस में लड़ते-झगड़ते अरबों को एक उपासना पद्धति, एक दैवी पुस्तक और अल्लाह के संदेशवाहक के रूप में अपने प्रति एकान्तिक निष्ठा की डोर में मजबूती से बांध दिया था। उन्होंने मजहब के आधार पर मानव जाति को दो हिस्सों में बांट दिया था। हजरत मुहम्मद जीवन भर युद्ध लड़ते रहे, उनकी आंखों के सामने काबा के प्राचीन मन्दिर में रखीं प्रतिमाएं ध्वस्त हुईं। उन्होंने अपने अनुयायियों को निराकार की उपासना के आवेश में मूर्ति-भंजन का मंत्र दिया। इस्लाम (शान्ति) नामक अपने मजहब की पताका को पूरे वि·श्व पर फहराने का उन्माद दिया। विधर्मियों के विरुद्ध इस विजय अभियान को "जिहाद" का नाम दिया। जिहाद में भाग लेना प्रत्येक मुसलमान का पवित्र कत्र्तव्य बन गया। जिहाद में मजहबी, राजनीतिक, आर्थिक एवं सेक्स की प्रेरणाओं का अद्भुत मिश्रण विद्यमान था। जिहाद में मारा जाना सबाब बन गया।
जिहादियों का टिड्डी दल
इस जिहादी उन्माद को लेकर अरब सेनायें हजरत मुहम्मद की मृत्यु के दो वर्ष बाद 634 ईस्वीं में अरब के रेगिस्तान से बाहर निकलीं और तुरंत प्राचीन बेबिलोनिया सभ्यता के गढ़ इराक पर टूट पड़ीं। मजहबी, राजनीतिक सत्ता व आर्थिक लूट के घालमेल से बनी इस "शराब" का उन्माद इतना ताकतवर और आक्रामक था कि जिधर भी अरबी जिहादियों का यह टिड्डी दल जाता उधर ही सफाया हो जाता। पचिमी एशिया की सभी प्राचीन सभ्यताएं -इराक, सीरिया, फिलिस्तीन, पूर्व में स्थित फारस साम्राज्य, पचिम में अफ्रीका के उत्तरी तट पर स्थित मिस्र, लीबिया, मोरक्को आदि की सभी प्राचीन सभ्यताएं इस आंधी के सामने ढहती चली गईं। विजयी अरबी सेनाओं ने उन पर केवल अपना मजहब और राजनीतिक प्रभुत्व ही नहीं थोपा, बल्कि अपनी भाषा, वेशभूषा और संस्कृति भी आमूलाग्र थोप दी। प्रत्येक जीते हुए देश का अरबीकरण हो गया। 637 ईस्वीं में कुदेसिया के मैदान पर फारस के सम्राट की पराजय के बाद तेरह साल तक अरब फौजों ने पूरे विशाल फारस साम्राज्य पर अपनी उपासना पद्धति और संस्कृति को थोपने का अभियान जारी रखा। ईरान के जिन निवासियों ने जरथ्रुष्ट द्वारा प्रवर्तित अग्नि पूजा की अपनी प्राचीन उपासना पद्धति को त्याग कर इस्लाम पद्धति को अपनाना स्वीकार नहीं किया उन्होंने स्वदेश से भाग कर भारत में शरण ली। इन चौदह सौ वर्षों में भारत ने उस इस्लामी विस्तारवाद से अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए सतत् जूझते हुए भी ईरान से आये हुए उन शरणार्थियों को अपनी पूजा-पद्धति व परम्पराओं के साथ न केवल जीने, बल्कि भारत के राष्ट्र जीवन के उच्चतम शिखरों तक पहुंचने का भी अवसर प्रदान किया है।
फारस साम्राज्य को पदाक्रांत करते हुए यह अरबी आंधी सन् 650 ईस्वीं में भारत की पचिमी सीमाओं पर दस्तक देने लगी। भारत ने सहस्राब्दियों में बहुविध विविधताओं को समेटे हुए एक विकेन्द्रित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक जीवन का विकास किया था। यहां मनुष्य को अपने आध्यात्मिक विकास के लिए भी किसी भी रूप, किसी भी मार्ग से श्रद्धापूर्वक उपासना करने की पूरी छूट थी, सब रूप एक ही परमतत्व की अभिव्यक्ति है, उपासना के सभी मार्ग उसी तत्व तक पहुंचाते हैं, यह वि·श्वास जनमानस में गहरा बैठा हुआ था। सामाजिक जीवन भी कुल, जाति, देश और काल के अनुरूप आचार विचार, रीति-रिवाज के आधार पर पूरी तरह विकेन्द्रित था। आसेतु हिमाचल विशाल भूखंड अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र जनपदों और राज्यों में विभाजित था। चक्रवर्तित्व के लिए अनेक राज्यों में प्रतिस्पर्धा रहती थी। ऐसे विकेन्द्रित भारत की पचिमी सीमाओं पर उस काल में तीन राज्य विद्यमान थे, जिन्हें उन दिनों कोकान, जाबुल और काबुल के नाम से पुकारा जाता था। अरब सेनाओं के विजय रथ को रोकने का साहस उस समय किसमें था? ईराक, इरान, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, मिस्र, मोरक्को आदि सभी प्राचीन सभ्यताएं और विशाल राज्य अरब-आक्रमण के एक ही धक्के में भरभरा कर ढह गए थे। 712 ईस्वीं तक अरब फौजें पूरे पचिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका को जीत कर भूमध्य सागर को पार कर यूरोप में घुस गई थीं, फ्रांस के मध्य तक पहुंच गई थीं। एक खलीफा के अधीन यह उस समय के विश्व का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। इस अरब आंधी को भारत के तीन सीमावर्ती राज्यों ने सन् 879 अर्थात् पूरे 229 साल तक रोके रखा। नौवीं शताब्दी के मध्य तक अरब मैदान से हट गये और उनकी जगह नये मतान्तरित तुर्की मुसलमानों ने ले ली। प्रतिरोध का यह दूसरा चरण भी उतना ही विकट, उतना ही रोमांचकारी था। राजधानी पीछे खिसकती रही पर संघर्ष चलता रहा। काबुल से नन्दन, नन्दन से ओहिन्द, ओहिन्द से लाहौर राजधानी बदली गई। अन्ततोगत्वा सन् 1017 में लाहौर छिनने के बाद ही प्रतिरोध का यह चरण बन्द हुआ। पर यह पूर्ण विराम नहीं था। उसके बाद भी अनेक अध्याय लिखे गये। 1017 की सीमा रेखा ही 1947 में विभाजन रेखा बनी। और 2000 ईस्वीं में बामियान की शान्त बुद्ध प्रतिमाओं के खण्ड-खण्ड ध्वंस ने फिर से स्मरण दिला दिया कि सातवीं शताब्दी का आक्रमण अभी भी रुका नहीं है और हम अस्तित्व-रक्षा के लिए विकट रणक्षेत्र में खड़े हुए हैं।
अरब फौज का आत्मसमर्पण
यह वि·श्व इतिहास में प्रतिरोध का सबसे रोमांचकारी किन्तु सबसे अधिक उपेक्षित अध्याय है। भारतीय विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पाठ पुस्तकों में हमारे पूर्वजों के प्रतिरोध का यह प्रेरणादायी अध्याय पूरी तरह गायब है या फुटनोट से अधिक स्थान नहीं पा रहा है।
भारत की पचिमी सीमा पर स्थित राज्यों पर विजय अभियान का संचालन इराक की राजधानी बसरा को सौंपा गया। बसरा के अरब-गवर्नर अब्दुल्ला इब्न अमीर के आदेश पर रबी इब्न जियाद ने जाबुल राज्य के अधीनस्थ सीस्तान की राजधानी जरंग पर पहला आक्रमण किया जिसमें बड़ी संख्या में अरब मुजाहिदीन मारे गए। अरबों को तात्कालिक विजय मिली। पर शीघ्र ही सीस्तानियों ने उन्हें भारी हानि के साथ मार भगाया। तीन साल बाद 653 ईस्वीं में बसरा के उसी गवर्नर ने अब्दुर्रहमान को सीस्तान और काबुल को जीतने का हुक्म दिया। एक अरबी स्रोत "तरजुमा-ए-फुतुहात" के अनुसार "जरंग शहर के निवासियों ने बहुत विकट लड़ाई लड़ी किन्तु मुसलमान जीते और उन्हें लूट में भारी माल मिला।" बलाधुरी लिखता है कि "अब्दुर्रहमान ने जूर के मंदिर में घुसकर सोने की प्रतिमा की आंखों में लगे हीरों को बाहर निकालकर वहां के प्रबंधक के सामने फेंक कर कहा, अपने हीरे अपने पास रखो, मैं तो केवल यह बताना चाहता था कि इन मूर्तियों में तुम्हारी रक्षा का सामथ्र्य नहीं है।"
कर्बला के युद्ध में खलीफा अली की हत्या के बाद मुआदिया खलीफा की गद्दी पर बैठा (661-680 ईस्वीं)। उसने अब्दुर्रहमान को पुन: सीस्तान का गवर्नर नियुक्त करके काबुल को जीतने का दायित्व सौंपा। बलाधुरी के अनुसार, "एक महीने लम्बे घेरे के बाद अब्दुर्रहमान ने काबुल को जीत लिया पर काबुल के राजा की पुकार से भारत के योद्धा दौड़ पड़े और मुसलमान काबुल से खदेड़ दिए गए।" 683 में सीस्तान के गवर्नर याजिद इब्न जियाद ने काबुल पर पुन: हमला किया पर वह स्वयं ही जुनजा के युद्ध में मारा गया और उसकी सेना भारी हानि के साथ भाग खड़ी हुई। यहां तक कि सीस्तान भी अरबों के अधिकार से निकल गया और अरबों को हिन्दू राजा रनबल को अबु उबैदा की रिहाई के लिए हर्जाने के तौर पर 5 लाख दिरहम दिए गए। कुछ समय बाद मुस्लिम सेनानायक उमैर अल-माजिनी ने राजा रनबल की हत्या कर दी, किन्तु राजा के पुत्र ने संघर्ष जारी रखा। सन् 692 में खलीफा अब्दुल मलिक ने अब्दुल्ला को सीस्तान का गवर्नर नियुक्त किया। अब्दुल्ला ने बड़ी फौज लेकर जाबुल पर आक्रमण कर दिया। राजा ने रणनीति के तहत अरब फौज को बिना कोई प्रतिरोध किये अपने राज्य में काफी भीतर तक घुस आने दिया और फिर यकायक पीछे से सब दर्रों और पहाड़ी मार्गों को बंद कर के मुस्लिम सेना को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया। राजा ने अब्दुल्ला से लिखवा लिया कि वह भविष्य में कभी हमला नहीं करेगा और उसके राज्य में आगजनी या विध्वंस नहीं करेगा। इस अपमानजनक संधि को खलीफा ने मानने से इनकार कर दिया और अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया।
अब इराक का गवर्नर अल-हज्जाज बना। उसने उबैदुल्लाह के सेनापतित्व में विशाल सेना को सीस्तान भेजा और तुरन्त काबुल पर हमला करने का निर्देश दिया। अल-हज्जाज ने शर्त लगाई कि पूरे प्रदेश को जीते बिना उबैदुल्लाह उसे शक्ल नहीं दिखायेगा। उबैदुल्लाह पूरी ताकत लगाकर काबुल के नजदीक तक पहुंच गया किन्तु वहां राजा के कड़े प्रतिरोध के सामने उसे पीछे हटना पड़ा। उसके तीन पुत्र राजा के कब्जे में आ गए। उबैदुल्ला ने राजा को वचन दिया कि जब तक वह सीस्तान का गवर्नर है वह कभी हमला नहीं करेगा। इस संधि को बाकी अरब सेना नायकों ने नहीं माना। उनमें से एक थूराह ने तुरंत हमला बोल दिया पर वह मारा गया और अरब सेना बस्त के रेगिस्तान के रास्ते से भाग निकली। इस भगदड़ में बड़ी संख्या में अरब मुजाहिदीन भूख प्यास से व्याकुल होकर मर गए। अपनी सेना की इस दुर्दाश के सदमे से उबैदुल्ला भी मर गया। इस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए हज्जाज ने एक विशाल फौज तैयार की और 700 ईस्वीं में अब्दुर्रहमान के पास 40000 सैनिक सीस्तान भेजे, जिनके साथ अपनी सेना को मिलाकर तुरन्त काबुल पर चढ़ दौड़ा पर उसे भी पराजय का मुंह देखना पड़ा, जिसके लिए अल हज्जाज ने उसे दोषी ठहराया। उसे सूबेदारी से हटाने का निचय किया। इस बात की भनक लगने पर अब्दुर्रहमान की प्रतिक्रिया थी कि "काबुल को जीतने के बजाय बसरा को जीतना मेरे लिए आसान है।"
छल का सहारा
हज्जाज को सबक सिखाने के लिए उबैदुल्लाह ने हिन्दू राजा के साथ संधि कर ली। संधि की शर्ते थीं कि अगर अब्दुर्रहमान अल हज्जाज के विरुद्ध सफल रहा तो वह राजा को कर मुक्त कर देगा, उसके राज्य पर कभी हमला नहीं करेगा। और अगर अब्दुर्रहमान हार गया तो राजा उसे अपने यहां शरण देगा, उसे सुरक्षा प्रदान करेगा। अब्दुर्रहमान ने बसरा पर धावा बोल दिया, पर वह हार गया और उसे राजा के यहां शरण लेना पड़ी। हज्जाज का राजा पर दबाव बढ़ता गया। राजा को इस परेशानी से बचाने के लिए अब्दुर्रहमान ने पहाड़ से कूद कर आत्महत्या कर ली।
वि·श्व की सबसे बड़ी शक्ति के विरुद्ध इतने लम्बे और सफल प्रतिरोध के कारण राजा का नाम पूरे मध्य एशिया मे गूंजने लगा। बलाधुरी के अनुसार, अब्दुर्रहमान की असफलता के बाद हज्जाज ने राजा से संधि कर ली और कर के रूप में एक निचित राशि की एवज में हमला न करने का वचन दिया। राजा ने कुछ वर्ष कर दिया पर फिर बन्द कर दिया। खलीफा अल मंसूर (754-75) ने कर वसूलने की पुन: कोशिश की। इस प्रकार यह हार-जीत का खेल लम्बे समय तक चलता रहा। इस बीच अरबों ने मध्य एशिया की तुर्क जातियों को जीतकर उन्हें मुसलमान बना लिया। इस प्रकार उनका राज्य विस्तार हो रहा था- सैनिक सामथ्र्य बढ़ता जा रहा था। एक नव मुसलमान याकूब-इब्न लईस ने सीस्तान को जीत लिया। याकूब काबुल के शाही राजा का नस्ल-बन्धु था, क्योंकि काबुल के हिन्दू राजा की रगों में भी तुर्क रक्त बह रहा था। याकूब ने काबुल पर कब्जा करने के लिए छल का सहारा लिया। उसने काबुल के राजा को संदेशा भेजा कि "इस्लाम कबूलने के लिए मैं अपने ऊपर शर्मिंदा हूं और आपकी धर्मनिष्ठा, दृढ़ता व वीरता के सामने नतमस्तक हूं। मैं आपके र्दान करके आपको सिजदा (प्रणाम) करना चाहता हूं। मुझे वि·श्वास है कि आप मुझे यह मौका देंगे।" राजा फूलकर कुप्पा हो गया। उसने याकूब को भेंट करने की इजाजत दे दी। तब याकूब ने संदेशा भेजा, "मैं आपके सामने निशस्त्र आऊंगा किन्तु मुझे बहुत डर लग रहा है। कृपया मेरे सैनिकों को भी निशस्त्र आने की अनुमति दें।" राजा ने यह भी स्वीकार कर लिया। याकूब ने अगली मांग की कि "मेरे निहत्थे सैनिकों को घोड़ों पर बैठकर आने की इजाजत दें और अपने सैनिकों को भी निशस्त्र स्थिति में ही वहां आने दें।" काबुल के राजा ने यह प्रार्थना भी मान ली। याकूब अपने घुड़सवार सैनिकों के साथ राजा के सामने आया। उसने राजा को सिर झुका कर सिजदा किया, उसके उत्तर में जैसे ही राजा ने अपना सिर झुकाया याकूब ने छिपे हुए हथियार से राजा का सिर काट लिया और उसके घुड़सवारों ने अपने छिपे हुए हथियारों से काबुल के निहत्थे सैनिकों पर हमला बोल दिया। इस तरह 879 ईस्वीं में विश्वासघात के द्वारा काबुल पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हुआ। एक ही नस्ल के दो व्यक्तियों के चरित्र में इस भारी अन्तर को- एक विश्वासघाती दूसरा महावि·श्वासी- क्या हम उनकी पांथिक विचारधाराओं की देन मानें?
पर प्रतिरोध रुका नहीं। राजधानी काबुल से हट कर नन्दन पहुंच गई। तुर्की रक्त के शाही वंश की जगह ब्राह्मण वर्ण के शाही वंश ने ले ली। कल्लर से प्रारम्भ यह वंश राजा जयपाल, उनके पुत्र आनन्द पाल, उनके पुत्र त्रिलोचन पाल तक संघर्ष करता रहा। इस बीच एक बार सन् 1001 में उत्तर भारत के राजाओं ने चन्देल राजा विद्याधर के नेतृत्व में शाही राजाओं की मदद से संयुक्त युद्ध करने का भी प्रयास किया। पर शायद भाग्य साथ नहीं दे रहा था। राजा जयपाल जब विजय के निकट थे तब भारी अंधड़ ने उनकी व्यूह रचना को ध्वस्त कर दिया और राजा जयपाल ने पराजय के अपमान से दुखी होकर स्वयं को जलती चिता में भस्म कर लिया। कई नस्लों के शाही राजाओं की कई पीढ़ियों ने 650 से 1017 ईस्वीं तक जो लम्बा प्रतिरोध किया उसके कारण ही शेष भारत उस भयंकर बर्बादी से बच सका जो अरब और तुर्क मुसलमानों ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के अन्य देशों में ढायी थी।द (8 अगस्त, 2007)
लेखक
देवेन्द्र स्वरूप

अखण्ड भारत - स्वप्न और यथार्थ


अखण्डता का अर्थ क्या?

अखण्ड भारत महज सपना नहीं, श्रद्धा है, निष्ठा है। जिन आंखों ने भारत को भूमि से अधिक माता के रूप में देखा हो, जो स्वयं को इसका पुत्र मानता हो, जो प्रात: उठकर "समुद्रवसने देवी पर्वतस्तन मंडले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम् पादस्पर्शं क्षमस्वमे।" कहकर उसकी रज को माथे से लगाता हो, वन्देमातरम् जिनका राष्ट्रघोष और राष्ट्रगान हो, ऐसे असंख्य अंत:करण मातृभूमि के विभाजन की वेदना को कैसे भूल सकते हैं, अखण्ड भारत के संकल्प को कैसे त्याग सकते हैं? किन्तु लक्ष्य के शिखर पर पहुंचने के लिए यथार्थ की कंकरीली-पथरीली, कहीं कांटे तो कहीं दलदल, कहीं गहरी खाई तो कहीं रपटीली चढ़ाई से होकर गुजरना ही होगा। यात्रा को शुरू करने से पहले उस यथार्थ को पूरी तरह जानना-समझना ही होगा। अन्यथा अंग्रेजी की वह कहावत ही चरितार्थ होगी कि "यदि इच्छाएं घोड़ा होतीं तो भिखारी भी उनकी सवारी करते।"
अत: हमारे सामने पहला प्रश्न आता है कि भारत क्या है? क्या वह भूगोल है? क्या इतिहास है या कोई सांस्कृतिक प्रवाह है? यदि भूगोल है तो उस भूगोल को भारत कब मिला, किसने दिया? भूगोल तो पहले भी था पर तब वह भारत क्यों नहीं था? तब उसका नाम क्या था? भारत की अखंडता का अर्थ क्या है? यदि कोई भौगोलिक मानचित्र है जिसे हम अखंड देखना चाहते हैं तो प्रश्न उठेगा कि उसकी सीमाएं क्या हैं? क्या हम ब्रिटिश भारत की अखंडता चाहते हैं या सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएन सांग के समय के भारत की, जिसमें आज का अफगानिस्तान और मध्य एशिया का ताशकंद-समरकंद क्षेत्र भी सम्मिलित था? या उसके भी पहले के भारत की, जिसे पुराणों में नवद्वीपवती कहा है, जिसके श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, बाली, मलयेशिया, फारमूसा और फिलीपीन जैसे अनेक द्वीप अंग थे? यहां प्रश्न उठेगा कि विष्णु पुराण के "उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रैश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।" वाला भारत, नवद्वीपवती कब कैसे बन गया? भारत नाम की भौगोलिक सीमाओं के संकुचन और विस्तार का रहस्य क्या है? उसका आधार क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें देखना होगा कि भारत बना कैसे? क्या भारत एक दिन में बन गया या उसके पीछे हजारों साल की इतिहास यात्रा विद्यमान है? प्राचीन साहित्यिक स्रोत बताते हैं कि कभी इस भौगोलिक खण्ड को केवल हिमवर्ष कहते थे, फिर उसे "पृथिवी" "अजनाम वर्ष" और "जम्बूद्वीप" जैसे नाम मिले। मौर्य सम्राट अशोक को सकल जम्बूद्वीप का राजा कहा गया। आगे चलकर हमारे संकल्प-मंत्र में "जम्बूद्वीपे भरत खंडे भारतवर्षे आर्यावर्ते कुरुक्षेत्रे..." जैसे भौगोलिक नामों को गिनाया गया। जिसके अनुसार जम्बूद्वीप भरतखंड अर्थात् भारतवर्ष से बड़ी भौगोलिक इकाई है और भारतवर्ष आर्यावर्त से, आर्यावर्त कुरुक्षेत्र से बड़ा है। इन भौगोलिक रिश्तों का आधार क्या है? ये एक-दूसरे से जुड़ते कैसे चले गए? इन्हें परस्पर जोड़ने वाली इतिहास यात्रा की प्रेरणा क्या है, लक्ष्य क्या है और उसका वाहक या माध्यम कौन है?
मनुस्मृति में इस लम्बी इतिहास यात्रा के कुछ भौगोलिक सोपानों का वर्णन सुरक्षित है। (अध्याय 2, श्लोक 18-23) । इनमें पहला सोपान था, दो प्राचीन देव नदियों-सरस्वती और दृषद्वती के बीच का क्षेत्र, जिसे देवताओं ने बनाया और जिसे ब्राह्मावर्त नाम मिला। मनुस्मृति के अनुसार इस ब्राह्मावर्त क्षेत्र में "परम्परा से चले आये आचार को सभी मानवों के लिए आदर्श माना गया यानी वहां एक महान सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। निश्चय ही यह वही संस्कृति है जिसका स्रोत वेदों को माना जाता है और जिसका भौतिक शरीर अब पुरातात्विक खुदाइयों में सरस्वती के लुप्त प्रवाह के किनारे-किनारे हरियाणा से गुजरात के समुद्रतट तक प्रगट हो रहा है, जिसे पुरातत्वशास्त्रियों ने सिन्धु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता या सरस्वती सभ्यता का नाम दिया है। भारत की अखंड साहित्यिक परम्परा साक्षी है कि सरस्वती के तट पर ऋषियों ने वैदिक यज्ञ किए, दृश्यमान सृष्टि चक्र के पीछे विद्यमान देवशक्तियों का साक्षात्कार किया, ज्ञान यात्रा के इस चरण को त्रयी विद्या का नाम दिया। एक उत्कृष्ट विकसित भौतिक सभ्यता का विकास किया और श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की स्थापना की। इस सभ्यता के निर्माताओं को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ कहा गया। "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" पूरे विश्व को आर्यत्व-श्रेष्ठत्व की ओर ले जाने का सपना लेकर यह संस्कृति प्रवाह ब्राह्मावर्त की सीमाओं से आगे बढ़ा। उसके अगले भौगोलिक सोपान के रूप में मनुस्मृति ब्राह्मर्षि देश का वर्णन करती है जिसके अन्तर्गत कुरु, पांचाल, शूरसेन एवं मत्स्य नामक जनपदों का नामोल्लेख है। अर्थात् वर्तमान हरियाणा, उससे सटे राजस्थान का कुछ भाग और उत्तर प्रदेश का बृजमंडल इस सांस्कृतिक प्रवाह से आप्लावित हो गए। इस ब्राह्मर्षि देश की महिमा का वर्णन करते हुए मनुस्मृति कहती है इस देश में जन्मे निवासियों से ही पृथ्वी के समस्त मानव अपने लिए चरित्र की शिक्षा लेते हैं। यहां भी संस्कृति ही भूगोल की पहचान का आधार है। अगला सोपान है मध्य देश, जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत के बीच और पूर्व में प्रयाग से पश्चिम में सरस्वती के लोपस्थान विनशन तक फैला है। यही सांस्कृतिक प्रवाह मध्यदेश से आगे बढ़कर दक्षिण में रेवा (नर्मदा) तट तक पहुंच जाता है और पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक फैल जाता है। इस क्षेत्र को नाम मिलता है आर्यावर्त और उसकी पहचान है कि वह यज्ञिय देश है और वहां काला मृग नि:शंक होकर चरता है। स्पष्ट ही, आर्यावर्त नाम का अधिष्ठान सांस्कृतिक है। मनुस्मृति के नवीं शताब्दी के व्याख्याकार मेधातिथि तो यहां तक कहते हैं कि जिस क्षेत्र में वर्णाश्रम व्यवस्था है वही आर्यावर्त कहलाने का अधिकारी है, उसके परे म्लेच्छों का वास है।
मनुस्मृति आर्यावर्त पर आकर रुक जाती है। उसके आगे सांस्कृतिक प्रवाह की यात्रा का वर्णन नहीं करती। यह वर्णन हमें महाभारत व पुराणों में प्राप्त होता है। पुराण हमें भारत नाम की उत्पत्ति, उसकी भौगोलिक सीमाओं, उसके नदी प्रवाहों, पर्वतों, नगरों और आसेतु हिमाचल बिखरे जनपदों का परिचय देते हैं। उनके अनुसार वैवस्वत मनु की वंश परम्परा के नाभि के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारत नामकरण हुआ। भरत ने सरस्वती के तट पर अनेक यज्ञ किए। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् में वर्णित दुष्यंत पुत्र भरत का उल्लेख कोई पुराण नहीं करता। कुछ प्राच्यविद् भारत नाम का स्रोत सरस्वती नदी के तट पर भरत नामक जन को मानते हैं। यदि सरस्वती तट पर विकसित वैदिक सरस्वती का आधार भरत जन था तो यह बहुत संभव है कि उस लम्बी सांस्कृतिक यात्रा, जिसने उस पूरे भूगोल को जिसे भारत वर्ष नाम मिला, एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व प्रदान करने का माध्यम भरत जन ही रहा होगा।
महाभारत ने भारतवर्ष नाम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए उसका कीर्तिगान किया। भीष्म पर्व के नवें अध्याय में महाभारतकार कहता है कि अब तुम्हारे लिए उस भारतवर्ष का कीर्तिगान करूंगा जो देवराज इन्द्र, वैवस्वत मनु, वैन्यपृथु, इक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, उशिनर, ऋषभ, एल नृग, कुशिक, सोमक, दिलीप आदि राजाओं को प्रिय था। ये सभी नाम महाभारत युद्ध से पुराने हैं और एक लम्बी इतिहास यात्रा के सूचक हैं। पुराण, ग्रन्थ इस इतिहास यात्रा में से जन्मी-बढ़ी सांस्कृतिक पक्ष को महत्व देते हैं। विष्णु पुराण कहता है कि भारतवर्ष में ही चार युग (कृत, त्रेता, द्वापर और कलि) होते हैं अन्यत्र कहीं नहीं। इसी देश में परलोक के लिए मुनिजन तपस्या करते हैं, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते हैं और दान देते हैं। जम्बूद्वीप में भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह कर्मभूमि है। अन्य देश केवल भोग भूमियां हैं। जीव को सहस्रों जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होने पर ही इस देश में जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य तो मनुष्य स्वर्ग के देवता भी एक ही गीत गाते हैं कि धन्य हैं वे जिन्हें भारतभूमि में जन्म मिला, क्योंकि वहां स्वर्ग और अपवर्ग दोनों को प्राप्त कराने वाला कर्म पथ उपलब्ध है। विष्णुपुराण भारत को मोक्ष भूमि व कर्म भूमि कहता है। (विष्णुपुराण, द्वितीय अंश, अध्याय 3, श्लोक 19-25)
विष्णु पुराण की इन पंक्तियों में भारत की ज्ञान यात्रा की त्रयी विद्या से ब्राह्म विद्या की ओर प्रगति का संकेत भी छिपा है। ये पंक्तियां हमें भगवद्गीता (अध्याय 9, श्लोक 20-21) के इस कथन का स्मरण दिलाती हैं कि सोमपान करने वाले त्रैविद्य यज्ञों के द्वारा स्वर्ग पाने की प्रार्थना करते हैं। वे अपने पुण्यों के फलस्वरूप इन्द्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में देवतुल्य भोग भोगते हैं। किन्तु उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर अपने पुण्यों के क्षीण होने पर पुन: मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस त्रयी धर्म का अनुसरण करने वाले, भोगों की कामना वाले लोगों को आवागमन के चक्र में फंसे रहना पड़ता है। एक अन्य स्थान पर गीता कहती है कि तीनों वेद (ऋक्, यजु: और साम) त्रिगुणात्मक हैं। तू उनसे आगे बढ़। ब्राह्म को जानने वाले व्यक्ति के लिए सब वेदों का प्रयोजन उतना रह जाता है जितना कि सब ओर से परिपूर्ण विशाल जलाशय के प्राप्त हो जाने पर किसी कुंए का होता है। (गीता, अध्याय-2, श्लोक 45-46) भारत की ज्ञान यात्रा गतिमान है। उसने एक बिन्दु पर पहुंच कर जीव, जगत और ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार किया। देश और काल से बंधे दृश्य जगत के परे जाने के लिए योगमार्ग का आविष्कार किया। स्वर्ग से आगे मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य को मानव जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। और अनेक जन्मों में उस लक्ष्य तक पहुंचाने वाले श्रेष्ठ दैवी गुणों का प्रतिपादन किया। इनके समुच्चय को ही "धर्म" कहा। मानव की अर्थ और काम की जन्मजात ऐषणाओं को "धर्म" के द्वारा संयमित करने का प्रयास किया- धर्मानुसार अर्थ, अर्थानुसार काम जैसे सूत्र प्रदान किए। व्यक्ति को कुल, जाति, ग्राम, जनपद और राष्ट्र की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए "वसुधैव कुटुम्बकम्" के आदर्श तक पहुंचाने वाली समाज रचना खड़ी की, जीवन की विविधता को केवल सहन ही नहीं तो शिरोधार्य किया। "एकोऽहं बहुस्यामि" और "एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति" जैसे सूत्र वाक्यों के द्वारा उसे दार्शनिक अधिष्ठान दिया।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा कि इस भूमि पर अनेक बोलियां बोलने वाले और अनेक आचार-विचार को मानने वाले लोग रहते हैं पर यह भूमिमाता अपने उन सब पुत्रों को समान रूप से दूध पिलाती है। वह मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूं। कृतज्ञता से भरे भारतीय मन ने माता-भूमि सम्बन्ध के द्वारा अपने को इस भूमि से मान लिया। इसके कण-कण में अपनी श्रद्धा के बीज बोये जिनमें से एक विशाल तीर्थ मालिका का जन्म हुआ। यह मातृभूमि के प्रति भक्ति की अनेकमुखी विविधता को बांधने वाला सूत्र बन गयी। भारत ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, प्रकृति के अनुकूल इष्ट देवता और उपासना पद्धति को चुनने की छूट दी। गीता में कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो मुझे जिस जिस रूप में भजना चाहता है मैं उसकी श्रद्धा को उसी रूप में दृढ़ कर देता हूं। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार सब नदियों का जल बहकर समुद्र में जाता है उसी प्रकार उपासना के सब मार्ग मुझ तक ही पहुंचाते हैं। मनुष्य के आत्मिक विकास की एकमात्र कसौटी है "आत्मवत् सर्वेभूतेषु" और "सर्वभूतहिते रत:।" इस प्रकार भारत माता के प्रति पुत्र भाव और एक श्रेष्ठ जीवन दर्शन के प्रति अस्था ने ही हमारी सब विविधताओं को एक सूत्र में बांधे रखा है। इसी को राष्ट्र-धर्म कहते हैं। भूमि के प्रति भक्ति का यह भाव सांस्कृतिक प्रवाह के साथ-साथ आगे बढ़ता गया। संस्कृति और भारत एकरूप हो गए। इसीलिए भारतवर्ष की व्याख्या ब्राह्मावर्त, ब्राह्मर्षि देश, मध्य देश, आर्यवर्त, कन्याकुमारी से हिमालय तक के कुमारी खंड से आगे बढ़कर नवद्वीपवती तक पहुंच गयी। भारत ने बृहत्तर भारत का रूप धारण कर लिया।
किन्तु कालक्रम से इन सीमाओं का सिकुड़ना आरम्भ हुआ। आठवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी विचारधारा का प्रवेश हुआ जिसे उपासनात्मक विविधता स्वीकार्य नहीं है, जो अपनी उपासना पद्धति को ही पूर्ण और अन्तिम सत्य मानती है, जो एक पुस्तक और एक पैगम्बर के प्रति अन्धश्रद्धा न रखने वालों को काफिर कहती है, जिसकी दृष्टि में काफिरों को येन-केन प्रकारेण अपने रास्ते पर लाना ही सबसे बड़ा पुण्य कार्य है अन्यथा उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। इस विचारधारा में देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता के लिए कोई स्थान नहीं है। वह मजहब को ही सामूहिक पहचान का आधार मानती है। वह अन्य उपासना पद्धतियों के पूजा स्थलों के विध्वंस को मजहब की सेवा समझती है। अपने अनुयायियों को काफिरों के विरुद्ध जिहाद (धर्म युद्ध) का आदेश देती है। जिहाद में मारे जाने वालों को गाजी कहलाने व जन्नत में जाने का लालच दिखाती है। जो अपने जन्मदेश अर्थात् अरब प्रायद्वीप की सभ्यता, भाषा, वेशभूषा को भी मजहब का हिस्सा मानती है। इस विचारधारा के प्रवेश के बाद भारत में दो विचारधाराओं का लम्बा टकराव प्रारम्भ हो गया। एक विचारधारा जिसमें देशभक्ति, सहिष्णुता, विविधता एवं मानव सभ्यता के लिए कोई स्थान नहीं है, जो असहिष्णु, विस्तारवादी एवं ध्वंसकारी है। यह विचारधारा जहां पश्चिमी और मध्य एशिया, उत्तरी अफ्रीका में अनेक प्राचीन सभ्यताओं को पूरी तरह लील गई, वहां विविधता भरे विकेन्द्रित भारत में इसको एक-एक इंच आगे बढ़ने के लिए लड़ना पड़ा, यहां उसे भारत की संस्कृति को पदाक्रान्त और नि:शेष करने के बजाय अपनी अलग अस्मिता को बचाने की चिन्ता लगी रही। अनेक मध्यकालीन मौलवियों और शासकों की पीड़ा रही कि भारत में हमारी स्थिति हिन्दुओं के महासमुद्र में एक दाने के समान है। इस अस्तित्व रक्षा की चिन्ता ने भारत की प्राचीन सभ्यता व सांस्कृतिक प्रतीकों से पूर्ण सम्बंध विच्छेद का रूप धारण कर लिया।
जियाउद्दीन बरनी, शेख अहमद सरहिन्दी, शाहवली उल्लाह से लेकर सैयद अहमद बरेलवी और उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित देवबंद के दारूल उलूम का एकमात्र प्रयास भारतीय मुसलमानों को भारत की वेषभूषा, जीवन शैली, भाषा और इतिहास से दूर करके अरबी सांचे में ढालना रहा। उन्होंने इस्लाम पूर्व भारतीय इतिहास को जाहिलिया घोषित कर दिया। अपने पूर्वजों और महापुरुषों को अस्वीकार करके विदेशी आक्रमणकारियों को अपने महापुरुष मान लिए। उन्हें राम और कृष्ण स्वीकार्य नहीं, बाबर और औरंगजेब शिरोधार्य हैं। पाकिस्तान द्वारा अपने प्रक्षेपास्त्रों के नाम गोरी और गजनवी रखने के पीछे भी यही मानसिकता झलकती है। आखिर पाकिस्तानी मुसलमान भी तो विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा मतान्तरितों की ही सन्तान हैं। भारत जैसा संकट इस्लाम को शायद किसी दूसरे देश में नहीं झेलना पड़ा इसलिए भारतीय मुस्लिम मानस का विकास इन तेरह सौ वर्षों में हिन्दू विरोध के आधार पर ही हुआ है। इसीलिए उन्हें वन्देमातरम् से चिढ़ है। सर सैयद अहमद को लोकतंत्र स्वीकार नहीं था, क्योंकि उनकी दृष्टि में लोकतंत्र का अर्थ होगा बहुमत का राज अर्थात् मुस्लिम अल्पमत पर हिन्दू बहुमत का शासन। इसलिए उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस में न जाने की सलाह दी। इसी मानसिकता में से 1906 में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ, जिसने 1947 में देश का विभाजन कराया। इस विभाजन के लिए जिन्ना नहीं, मुस्लिम समाज जिम्मेदार है। एक मुस्लिम चिन्तक अजीज अहमद ने 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "स्टडीज इन इस्लामिक कल्चर इन इंडियन एनवायरमेंट" (भारतीय परिवेश में इस्लामी संस्कृति का अध्ययन) पुस्तक में भारत में मुस्लिम पृथकतावाद के विकास का विश्लेषण करते हुए पुस्तक का समापन इन शब्दों के साथ किया है कि जो लोग समझते हैं कि जिन्ना ने मुसलमानों का नेतृत्व किया या उन्होंने पाकिस्तान बनवाया, वे भूल करते हैं। जब तक जिन्ना ने मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश की मुस्लिम समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, जिस दिन उन्होंने मुस्लिम समाज का अनुयायी बनना तय किया उसी दिन वे उसके नेता बन गए। जिन्ना की भूमिका अपने मुवक्किल (मुस्लिम समाज) की आकांक्षाओं को आधुनिक संवैधानिक शब्दावली में प्रस्तुत करने वाले वकील से अधिक कुछ नहीं थी।
यहीं सवाल आता है कि मुस्लिम समाज ने मौलाना अबुल कलाम आजाद के बजाय जिन्ना को अपना वकील क्यों चुना? आजाद पूरी तरह मुसलमान थे, वेषभूषा में अरबी, फारसी व उर्दू भाषा में पांच बार नमाज पढ़ने में, कुरान की विद्वतापूर्ण व्याख्या में, जबकि मि. जिन्ना का इस्लाम से दूर तक वास्ता नहीं था, वे अंग्रेजी वेषभूषा में रहते थे, नमाज नहीं पढ़ते थे, उर्दू पढ़-लिख नहीं सकते थे। मुसलमानों के लिए वर्जित सुअर का मांस उन्हें पसन्द था। वरिष्ठ पत्रकार प्राण चोपड़ा ने अभी हाल में लिखा है कि विभाजन के पहले जालंधर में मुस्लिम लीग की एक सभा की रिपोर्टिंग करते समय उन्होंने देखा कि कायदे आजम जिन्ना अंग्रेजी में धुआंधार भाषण दे रहे हैं कि इस्लाम खतरे में है, उसे बचाने के लिए आपको संघर्ष करना होगा। उनके भाषण के बीच में ही पास की मस्जिद से अजान हुई जिसे सुनकर मंच पर बैठे सब लोग और श्रोताओं का विशाल समूह नमाज पढ़ने के लिए चला गया, पर कायदे आजम अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। उन्होंने अपनी जेब से सिगार निकाला, उसमें तम्बाकू भरा और मजे से पैर फैलाकर वे धुंआ उड़ाते रहे। नमाज पूरी करके भीड़ वापस लौटी और फिर अंग्रेजी भाषा में इस्लाम की रक्षार्थ संघर्ष का भाषण शुरू हो गया। प्राण चोपड़ा आश्चर्यचकित थे कि अंग्रेजी न जानने वाली वह भीड़ इतनी श्रद्धा से क्या सुन रही थी।
इस मानसिकता का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि भारतीय मुस्लिम मानसिकता ने हिन्दू विरोध को ही मजहब मान लिया है। इस हिन्दू विरोधी और पृथकतावादी मानसिकता के कारण ही उन्होंने गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के होते कांग्रेस का साथ नहीं दिया क्योंकि वे उसे हिन्दु कांग्रेस मानते थे। नेहरू जी ने मार्च, 1937 में मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान छेड़ा तो उससे घबड़ा कर कवि इकबाल ने जिन्ना को मुसलमानों का नेतृत्व संभालने का आदेश दिया। इसी कारण उन्होंने मौलाना आजाद को ठुकराया क्योंकि उनकी दृष्टि से वे हिन्दू कांग्रेस का एजेन्ट थे। आज भी वही मानसिकता है। भारतीय जनता पार्टी को स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं। इसीलिए भाजपा के साथ जुड़ने वाले प्रत्येक मुस्लिम नेता को -वह चाहे स्व. सिकन्दर बख्त हों, चाहें आरिफ बेग या आरिफ मुहम्मद, चाहे मुख्तार अब्बास नकवी या शाहनवाज हुसैन इन सभी को वे हिन्दुओं का एजेन्ट मानते हैं।
1947 का विभाजन पहला और अन्तिम विभाजन नहीं है। भारत की सीमाओं का संकुचन उसके काफी पहले शुरू हो चुका था। सातवीं से नवीं शताब्दी तक लगभग ढाई सौ साल तक अकेले संघर्ष करके हिन्दू अफगानिस्तान इस्लाम के पेट में समा गया। हिमालय की गोद में बसे नेपाल, भूटान आदि जनपद अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मुस्लिम विजय से बच गए। अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया पर अब वह राजनीतिक स्वतंत्रता संस्कृति पर हावी हो गयी है। श्रीलंका पर पहले पुर्तगाल, फिर हालैंड और अन्त में अंग्रेजों ने राज्य किया और उसे भारत से पूरी तरह अलग कर दिया। यद्यपि श्रीलंका की पूरी संस्कृति भारत से गए सिंहली और तमिल समाजों पर आधृत है। दक्षिण पूर्वी एशिया के हिन्दू राज्य क्रमश: इस्लाम की गोद में चले गए किन्तु यह आश्चर्य ही है कि भारत से कोई सहारा न मिलने पर भी उन्होंने इस्लामी संस्कृति के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाने के बाद भी उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखा है और पूरे विश्व के सामने इस्लाम के साथ सह अस्तित्व का एक नमूना पेश किया।
किन्तु मुख्य प्रश्न तो भारत के सामने है। तेरह सौ वर्ष से भारत की धरती पर जो वैचारिक संघर्ष चल रहा था उसी की परिणति 1947 के विभाजन में हुई। पाकिस्तानी टेलीविजन पर किसी ने ठीक ही कहा था कि जिस दिन आठवीं शताब्दी में पहले हिन्दू ने इस्लाम को कबूल किया उसी दिन भारत विभाजन के बीज पड़ गए थे। इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम आधार पर हुआ। पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी देश घोषित किया। वहां से सभी हिन्दू-सिखों को बाहर खदेड़ दिया। अब वहां हिन्दू-सिख जनसंख्या लगभग शून्य है। भारतीय सेनाओं की सहायता से बंगलादेश स्वतंत्र राज्य बना। भारत के प्रति कृतज्ञतावश चार साल तक मुजीबुर्रहमान के जीवन काल में बंगलादेश ने स्वयं को पंथनिरपेक्ष राज्य कहा किन्तु एक दिन मुजीबुर्रहमान का कत्ल करके स्वयं को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया। विभाजन के समय वहां रह गए हिन्दुओं की संख्या 34 प्रतिशत से घटकर अब 10 प्रतिशत से कम रह गई है और बंगलादेश भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बन गया है। करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठिए भारत की सुरक्षा के लिए भारी खतरा बन गए हैं।
विभाजन के पश्चात् खंडित भारत की अपनी स्थिति क्या है? ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के अन्धानुकरण पर जिस राजनीतिक प्रणाली को हमने अपनाया है उसने हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र और दल के आधार पर जड़मूल तक विभाजित कर दिया है। पूरा समाज भ्रष्टाचार की दलदल में आकंठ फंस गया है। हिन्दू समाज की बात करना साम्प्रदायिकता है और मुस्लिम कट्टरवाद व पृथकतावाद की हिमायत करना सेकुलरिज्म। अनेक छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में बिखरा हिन्दू नेतृत्व सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लाभ में मुस्लिम वोटों को रिझाने में लगा है। कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवी वोट के लिए पूजे जा रहे हैं। शंकराचार्यों को जेल में ठूंसा जा रहा है, अपमानित किया जा रहा है, मंदिर प्रवेश से भी रोका जा रहा है, ईसाई मिशनरियों को पद्मभूषण व भारत रत्न दिया जा रहा है, राष्ट्रीय पराजय और अपमान के प्रतीक बाबरी ढांचे के ध्वंस पर 13 साल से पूरा देश आंसू बहा रहा है। शिखर के नेताओं को अपराध के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। कोई मुस्लिम नेतृत्व को नहीं समझा रहा है कि भारत के राष्ट्र पुरुष राम के मंदिर के निर्माण में वे सहयोग करें। मुस्लिम- ईसाई जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। देश के अनेक जिले अहिन्दुबहुल हो चुके हैं और वहां पृथकतावादी आन्दोलन चल रहे हैं।
सिख समाज का एक वर्ग अपने हिन्दू मूल से पूर्ण सम्बंध विच्छेद करने के आदेश में गुरुद्वारों में अरदास से भगवती को हटाने व स्कूलों में से गुरु गोविन्द सिंह की रचना "वर दे मोह शिवा" को हटाने की मांग कर रहा है। कुछ नेतृत्व लोभी चतुर सुजान सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय में से शूद्र शब्द हटाने की मांग कर रहे हैं। मीडिया एकता की भाषा बोलने के बजाय पृथकतावाद का प्रचारक बन गया है।
ऐसी स्थिति में अखंड भारत का रूप क्या होगा? उसका मार्ग क्या होगा? क्या इसका वस्तुपरक आकलन आवश्यक नहीं है? यदि मुस्लिम मानसिकता नहीं बदलती है, यदि इस्लामी विचारधारा के प्रति पुनर्विचार की प्रक्रिया मुस्लिम समाज के भीतर पैदा नहीं होती है, यदि हिन्दू समाज इसी तरह विभाजित, आत्मग्लानि और भ्रष्टाचार में डूबा रहता है, यदि उसका नेतृत्व इसी तरह सत्तालोभी और अवसरवादी बना रहता है तो भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के किसी महासंघ का चरित्र भी क्या रहेगा? शायद उसी दृश्य को सामने रखकर आजकल मुस्लिम बुद्धिजीवी अखंड भारत के प्रति ज्यादा उत्साह दिखा रहे हैं। भारत की अखंडता का आधार भूगोल से ज्यादा संस्कृति और इतिहास में है। खंडित भारत में एक सशक्त, एक्यबद्ध, तेजोमयी राष्ट्रजीवन खड़ा करके ही अखंड भारत के लक्ष्य की ओर बढ़ना संभव होगा। उसके लिए किसी एक विशिष्ट कार्य पद्धति का बन्दी न बनकर संगठन और अभिनिवेश से ऊपर उठकर विभिन्न नाम रूपों में कार्यरत भारत की सांस्कृतिक चेतना में एक्य लाना होगा, विविधता में एकता का प्रत्यक्ष दृश्य खड़ा करना होगा। इन सब प्रयासों को जोड़ने वाला महा व्यक्तित्व कहां से प्रगट होगा, इसी की आतुरता से प्रतीक्षा है।
लेखक
-देवेन्द्र स्वरूप