Tuesday, March 19, 2013

अनुकरणीय है ऋग्वैदिक समाज की विकास यात्रा


आधुनिक विश्व प्राचीन विश्व समाज का विकास है। ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम काव्य है सो ऋग्वैदिक समाज पर सारी दुनिया में व्यापक शोध हुए हैं। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता को प्राचीन तथा ऋग्वेद को नवीन मानने वाले विद्वानों की मान्यताएं अब धराशायी हो चुकी हैं। विश्वविख्यात माक्र्सवादी चिंतक डा.रामविलास शर्मा ने सारी दुनिया का साहित्य, पुरातत्व और भाषा विज्ञान खंगालकर लिखा, "संसार का प्राचीनतम ग्रंथ हमारे देश का ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले काव्य, दर्शन और इतिहास की सुदीर्घ परंपरा थी। इसके प्रमाण ऋग्वेद में मिल जाते हैं" (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खंड-1 की भूमिका)। माक्र्सवादी विवेचन में प्राचीनतम मानव समाज को "आदिम साम्यवादी" कहा जाता है। डा. शर्मा के अनुसार "ऋग्वेद का समाज आदिम साम्यवादी समाज नहीं है। व्यक्तिगत सम्पत्ति यहां दृढ़ता से स्थापित है। आगे (पृष्ठ 42 पर) कहते हैं, "उस युग में मनुष्य अपने उत्पादन के साधनों का स्वामी है।"

ऋग्वैदिक समाज के गठन की मूल संस्था विवाह है। विवाह संस्था ऋग्वेद के पहले से है। कतिपय विद्वान ऋग्वैदिक समाज को स्वेच्छाचारी बताते हैं, लेकिन वैदिक काल में अविवाहित पुरुष को यज्ञ का अधिकारी नहीं माना जाता था- "अयज्ञो वा ह्रेष यो अपत्नीक:। (तैत्तिरीय ब्रााहृण 2.2.2.6)। तैत्तिरीय (6.3.10.5) के अनुसार, "मनुष्य तीन ऋण लेकर जन्म लेता है-देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पितृ ऋण उतारने के लिए विवाह और संतान आवश्यक हैं।"

संतान में मनुष्य का अमरत्व है। संतान के जरिए मनुष्य स्वयं मर जाने के बाद भी जीवित रहता है। ऋग्वेद (5.4.10) में अग्नि से प्रार्थना है-"हम आपके अमर तत्व में स्थित रहकर संतान पायें।" विवाह एक सामाजिक उत्तरदायित्व था। कुछ लोग जिम्मेदारी से बचने या अन्य कारणों से विवाह से कतराते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि पत्नी लोपामुद्रा और अगस्त्य का दिलचस्प सम्वाद है। प्रतीत होता है कि अगस्त्य संतानोत्पादन के अनिच्छुक हैं। लोपामुद्रा एक मंत्र (1.179.2) में कहती हैं, "प्राचीनकाल के सत्यनियम आबद्ध ऋषियों ने भी विवाह और संतानोत्पत्ति का कार्य किया था। वे आजीवन ब्राहृचारी नहीं रहे।" वे कहती हैं- "हम दोनों अनेक वर्ष श्रमनिष्ठ "शश्रमाणां" रहे हैं, बुढ़ापा शरीर की क्षमता को जीर्ण करता है, समर्थ पुरुष पत्नियों के पास जायें" (वही, 1)। अगस्त्य कहते हैं, "हमारा परिश्रम-"श्रांत" बेकार नहीं गया। देवता परिश्रमी को संरक्षण देते हैं, हम दोनों अब संतान उत्पन्न करें।" (वही, 3) ऋग्वेद में विवाह के कारण बने जोड़े के लिए "दम्पत्ति" शब्द आया है। डा. शर्मा ने लिखा है, "हमारी भाषा में दम्पत्ति एक विशेष प्रकार का शब्द है। इसके प्रतिरूप अन्य देशों की भाषाओं में नहीं मिलते।"

ऋग्वेद (10.85) में विवाह का प्रीतिकर वर्णन है। यहां सूर्य पुत्री सूर्या के विवाह का चित्रण है। कहते हैं, "सूर्या के विवाह में ऋचाएं (वैदिक काव्य-मंत्र) सखियां और सेविकाएं थीं। गाथाएं उसके शोभायमान वस्त्र थे। स्तुतियां सूर्या के रथचक्र के डंडे थे। मन उसका रथ था और आकाश इस रथ का चक्र था।" (वही, 6-10) सूर्य ने स्नेह-धन (दहेज) दिया। सूर्या और अश्विनी कुमारों के विवाह का अनुमोदन सभी देवों ने किया। (वही 13.14) यहां विवाह के समय वरिष्ठों से परामर्श लेने की परंपरा मौजूद है। आगे कहते हैं, "हे कन्ये, हम आपको वरुण बंधन से मुक्त करते हैं- प्र त्वा मुंचामि वरुणस्य पाशाद्येन। (वही 24) वरुण नियमों के राजा हैं। ऋत-नियम के अनुसार अविवाहित पुत्री पितृग्रह से युक्त रहती है। कहते हैं, "हे कन्या, पितृकुल से आपको मुक्त करते हैं, पति कुल से सम्बद्ध करते हैं। इन्द्र से प्रार्थना है कि यह कन्या पुत्रवती हो, सौभाग्यवती हो। (वही, 25) विवाह का अवसर है, वर कन्या से कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं आपका हाथ ग्रहण करता हूं-गृभ्णमिते सौभगत्वाय हस्तंमया। (वही 36) देवशक्तियां उसे आशीर्वाद देती हैं "दीर्घायुरस्या य: पतिर्जीवाति शरद: शतम्- इसके पति दीघार्यु हों, सौ शरद् वर्ष जियें। (वही 39) इस दम्पत्ति को शत्रु या रोग पीड़ित न करें। (वही, 32) विवाह सामाजिक अनुष्ठान है इसलिए "कन्या को सब देखें। आशीर्वाद दें। (वही, 33) फिर मुक्त भाव से आशीर्वाद देते हैं "सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रवाभव, ननान्दरि "सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवेषु-श्वसुर, सासु, ननद और देवरों की सम्राज्ञी-शासनकत्र्ता बनो।" (वही, 46) वैदिक काल में सास-ससुर, ननद और देवर जैसे नेहपूर्ण रिश्तों का विकास हो चुका है। यहां नव वधु भोग्या और सेविका नहीं, सम्राज्ञी है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों की द्रष्टा स्त्रियां हैं।

विवाह परिवार नाम की संस्था की धुरी है। वैवाहिक संबंधों का भौगोलिक क्षेत्र बड़ा है। इसलिए पारिवारिक संबंध भी बहुत बड़े क्षेत्र तक व्यापक होते हैं। यहां गण समूह हैं, गणों से मिलकर बने जन और बड़े समूह हैं। लेकिन वर्ण व्यवस्था नहीं है। डा.सत्यकेतु ने "प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग" (पृष्ठ 189) में लिखा है कि "ऋग्वेद के समय में भारतीय आर्य चार वर्णों में विभक्त नहीं हुए थे।" ऋग्वैदिक समाज में "पांच जन" सुस्पष्ट हैं। अदिति सम्पूर्णता की पर्यायवाची देवी/देवता हैं, उनकी स्तुति में कहते हैं, "विश्वे देवा अदिति: पंचजना अदिति।" (1.89.10) कई विद्वान वर्तमान संदर्भों में पांचजन का अर्थ बाहृण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद करते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा ने भी अपने अनुवाद में बाहृण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद, ये पांच जन बताए हैं (ऋग्वेद संहिता, भाग 1, मंत्र 1.89.10) डा.कपिलदेव द्विवेदी को भी यही अर्थ मान्य है। लेकिन यह अर्थ सही नहीं है। डा.सत्यकेतु ने लिखा है, "ये पंचजन अनु, द्रह्रु, यदु, तुर्वस और पुरू थे। इनके अतिरिक्त भरत, त्रित्सु, सृजय आदि अनेक जनों का उल्लेख वेदों में आया है।" ठीक बात है। ऋग्वेद 1.108.8 में इन्द्र अग्नि से स्तुति है "यदिन्द्राग्नि यदुषुतुर्वशेषु यद् द्रह्रुण्वनुष, पुरूष रथ-हे इन्द्र, अग्नि। यदि आप यदु, तुर्वस,द्रह्रु, अनुया पुरू में विराजमान हैं तो भी और सोम पिएं-सोमस्य पिवतं सुतस्य।"

डा.शर्मा ने जन के संबंध में लिखा है, "सभी मनुष्यों के लिए इस शब्द का व्यवहार होता है, किंतु गण से भिन्न सामाजिक गठन के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया गया है। पंच क्षितय:, पंच कृष्टय: की तरह पंच जना: हैं। अदिति माता पिता आदि हैं। और पंच जना: भी हैं। (1.89.10) ये पंच जन सरस्वती के आसपास रहने वाले मानव समुदाय हैं जो कबीलों की अवस्था से बाहर निकलकर खेती करते हैं और कौशल का विकास कर रहे हैं। मित्र नाम के देव को पंच जना: आहुति देते हैं। (3.59.8) इन्द्र की शक्ति पंचसु जनेषु पंचजनों में फैली हुई है। (3.37.9) मानुष शब्द का व्यवहार भी मानव समुदाय के अर्थ में हुआ है। पंच मानुषां अनु, पंच मानव समुदायों के पास। (8.9.2) संभव है, गण की तरह इनका प्रयोग भी, समूहवाचक अर्थ में देवों के साथ हुआ हो। गण शब्द अधिकतर देवों के संदर्भ में आता है और जन शब्द मनुष्यों के संदर्भ में। सामान्य जनों के लिए तो जन शब्द का व्यवहार होता ही है। (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खंड 1, पृष्ठ 49-50)

ऋग्वेद के समाज में समता है। डा.सत्यकेतु ने लिखा है, "आर्य जाति के प्रत्येक जन में सब व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति समान थी, सबको एक ही "विश:" (जनता) का अंग माना जाता था।" (प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग, पृष्ठ 190) लेकिन विश्: या विश के अर्थ को लेकर थोड़े बहुत भ्रम भी हैं। डा.शर्मा ने लिखा है, "कुछ लोग विश् का अर्थ प्रजा करते हैं। सामंती व्यवस्था की प्रजा यहां नहीं है। ऋग्वेद में जहां प्रजा शब्द आया है, उसका अर्थ भी सामंती व्यवस्था की प्रजा नहीं हैं। प्रजा का सामान्य अर्थ है संतान। जितने भी जीव जन्म लेते हैं, वे सब प्रजा हैं। यहां वनस्पतियां प्रजा हैं और अग्नि उनमें व्याप्त है। सामान्य जन प्रजा हैं।" (भारतीय संस्कृति हिन्दी प्रदेश खंड 1, पृष्ठ 47) ऋग्वैदिक समाज में राजा-प्रजा के भेदभाव नहीं है।

                                                                                                                               लेखक :-
ह्मदयनारायण दीक्षित