Sunday, January 20, 2013

प्रतिरोध का एक विस्मृत अध्याय


प्रतिरोध का एक विस्मृत अध्याय

सातवीं शताब्दी में दो चीनी बौद्ध विद्वानों ने देवभूमि भारत की यात्रा की। इनमें से एक ह्वेन-सांग शताब्दी के आरंभ में आए तो दूसरे इÏत्सग शताब्दी के अंत में। ह्वेन-सांग 629 ईस्वीं में चीन से पचिमी स्थल मार्ग से होते हुए आधुनिक अफगानिस्तान में स्थित बामियान के प्रवेश द्वार से भारत में घुसे और 643 ई. तक लगभग पूरे भारत का भ्रमण करके उसी मार्ग से वापस लौटे। दूसरे विद्वान इत्सिंग ने पूर्व दिशा से समुद्री मार्ग पकड़ा और वे दक्षिण पूर्वी एशिया के अनेक देशों व द्वीपों से होकर ब्राह्मदेश (जिसे कुछ वर्ष पूर्व तक बर्मा कहा जाता था और अब म्यांमार कहा जाता है) में प्रविष्ट हुए। ह्वेन-सांग ने पूरे मध्य एशिया में भारत में जन्मी बौद्ध धारा को प्रवाहमान देखा। भारतीय बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों, भारतीय भाषाओं एवं मूर्ति-पूजक संस्कृति का वर्चस्व उन्हें सब ओर दिखाई दिया। उन्होंने अपने यात्रा-वृत्त को "पचिमी वि·श्व का वर्णन" जैसा नाम दिया। इससे विदित होता है कि उस समय चीन नाम से अभिहित भू-भाग आज के समान भारत की सम्पूर्ण उत्तरी सीमाओं पर फैला नहीं था अपितु पूर्व के किसी कोने में सिमटा हुआ था, जबकि भारतीय संस्कृति का प्रमाण पूरे मध्य एशिया में चीन की सीमाओं तक छाया हुआ था। ह्वेन-सांग ने अपने यात्रा-वृत्त में भारत को "ब्राह्मणों के देश" नाम से सम्बोधित किया है। यदि ह्वेन-सांग ने पचिम दिशा में भारतीय संस्कृति के प्रभाव क्षेत्र का चित्रण किया है तो इÏत्सग ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के सभी देशों और द्वीपों को पूरी तरह भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे देखा। उसने भी इस पूरे क्षेत्र को "ब्राह्मण संस्कृति का प्रदेश" जैसा नाम दिया है।
ह्वेन-सांग ने भारत की ओर बढ़ते हुए मध्य एशिया के अग्नि (काराशहर), कूची, भारुक (अक्सुह), काशगर, खोतान आदि सभी स्थानों में बौद्ध धारा का व्यापक प्रभाव, भारतीय लिपियों एवं ग्रन्थों का प्रचलन देखा। धुर पूरब में स्थित तुरफान से लेकर काशगर तक उसने सैकड़ों बौद्ध विहारों और मंदिरों का अस्तित्व देखा।
थोड़ा दक्षिण दिशा में चलकर ह्वेन-सांग उस प्रदेश में प्रविष्ट हुआ जिसे आजकल अफगानिस्तान के नाम से जाना जाता है। उससे लगभग तीन शताब्दी पूर्व एक अन्य चीनी यात्री फाहियान ने उद्यान या स्वात नदी की घाटी का वर्णन करते हुए लिखा था, "यह क्षेत्र निस्संदेह उत्तरी भारत का भाग है। यहां के सभी निवासी मध्य देश की भाषा का प्रयोग करते हैं। आम लोगों की वेशभूषा और खान-पान मध्य देश जैसा ही है। भगवान बुद्ध का शासन यहां सर्वमान्य है।" सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में ह्वेन-सांग ने लमघान, जलालाबाद, स्वात घाटी आदि पूरे क्षेत्र में यही समाज- जीवन देखा। उसके समय में यह सभी क्षेत्र भारत का अंग माना जाता था। भारत का प्रवेश द्वार हिन्दूकुश पर्वत पर स्थित बामियान दर्रे से होकर था। यह दर्रा काबुल घाटी को बलख-बुखारा से जोड़ता था। भारत आने वाले सभी यात्रियों, व्यापारियों का यह महत्वपूर्ण विश्राम स्थल था। वहां का राजवंश अपना उद्गम भगवान बुद्ध की जन्मस्थली कपिलवस्तु को मानता था। ह्वेन-सांग ने बामियान क्षेत्र में हजारों बौद्ध भिक्षुओं से भरे हुए अनगिनत विहारों को देखा। उसने वहां पहाड़ियों को काटकर बनाई हुई अनेक गुफाओं को देखा, दर्रे के दोनों सिरों पर पहाड़ी को काटकर बनाई गई बुद्ध की विशाल ऊंची प्रतिमाओं को देखा। ये प्रतिमाएं मध्य एशिया में सैकड़ों मील दूर से दिखाई देती थीं और भारत आने वाले यात्रियों को सही दिशा-बोध कराती थीं। वहां का राजा उन दिनों बौद्ध धर्मावलम्बी था और हर्षवर्धन के समान पंचवर्षीय उत्सव का आयोजन करता था।
इस्लाम की पताका
बामियान के दक्षिण में स्थित कपिशा, जिसका नामकरण बाद में काफिरिस्तान हो गया, बहुत शक्तिशाली राज्य था, जिसके अधीन सिन्धु नदी तक फैले हुए दस छोटे-छोटे राज्य थे। वहां का राजा क्षत्रिय था, श्रद्धावान बौद्ध था। वहां लगभग 100 विहारों में 6000 से अधिक बौद्ध भिक्षु विद्यमान थे। वहां बुद्ध के अतिरिक्त अन्य पौराणिक देवी-देवताओं के मंदिर भी बड़ी संख्या में थे। संस्कृत भाषा का प्रचलन था। वर्णव्यवस्था का अस्तित्व था। हजारों वर्ष पहले व्याख्यायित भारत वर्ष की सीमाओं के अन्तर्गत इस क्षेत्र को गिना जाता था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सिकन्दर के समय भी इस क्षेत्र को भारत के पांच खण्डों में से उत्तरापथ के अन्तर्गत रखा जाता था। औरंगजेब के समय तक इस प्रदेश को जीतने के लिए संघर्ष चलता रहा। औरंगजेब के आदेश पर जोधपुर के राजा जसवंत सिंह उसे जीतने गये थे। 1759 में जब मराठों ने पंजाब को मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त कराकर अटक के किले पर भारत का ध्वज फहराया तब भी इस विजय अभियान के नेता राघोबा (रघुनाथ राव) ने अपने बड़े भाई पेशवा बाला जी बाजीराव को पत्र लिखा था कि काबुल को जीतने के बाद ही भारत की मुक्ति का हमारा सपना पूरा हो सकेगा। भारत की प्राकृतिक सीमाओं को अफगानिस्तान के पचिमी प्रदेश हिरात में मानने के कारण ही अंग्रेजों ने इस प्रदेश को जीतने के कई असफल प्रयास किये।
किन्तु आज तो वही प्रदेश तालिबानी कट्टरवाद के साया में जी रहा है। यही प्रदेश 1979-80 में सोवियत सेनाओं की पराजय और अन्ततोगत्वा सोवियत संघ के विघटन का कारण बना। इसी प्रदेश ने ओसामा बिन लादेन को शरण दी और उसके जिहादी संगठन को आधार प्रदान किया। और अब यही प्रदेश अमरीका और "नाटो" की सेनाओं के गले की हड्डी बना हुआ है। उनसे न निगलते बन रहा है, न उगलते।
सातवीं शताब्दी में जो क्षेत्र भारतीय संस्कृति की पताका फहरा रहा था वह आज इस्लाम की पताका क्यों फहरा रहा है? इस प्रन का उत्तर खोजने के लिए हमें पुन: सातवीं शताब्दी में लौटना होगा।
जिस समय ह्वेन-सांग चीन से भारत आने की तैयारी कर रहा था, लगभग उसी समय अरब के रेगिस्तान में एक नई विचारधारा और उपासना पद्धति आकार ले रही थी। इस विचारधारा के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद ने ईस्वीं सन् 632 में अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक कबीलों में बंटे हुए अशिक्षित खानाबदोश, आपस में लड़ते-झगड़ते अरबों को एक उपासना पद्धति, एक दैवी पुस्तक और अल्लाह के संदेशवाहक के रूप में अपने प्रति एकान्तिक निष्ठा की डोर में मजबूती से बांध दिया था। उन्होंने मजहब के आधार पर मानव जाति को दो हिस्सों में बांट दिया था। हजरत मुहम्मद जीवन भर युद्ध लड़ते रहे, उनकी आंखों के सामने काबा के प्राचीन मन्दिर में रखीं प्रतिमाएं ध्वस्त हुईं। उन्होंने अपने अनुयायियों को निराकार की उपासना के आवेश में मूर्ति-भंजन का मंत्र दिया। इस्लाम (शान्ति) नामक अपने मजहब की पताका को पूरे वि·श्व पर फहराने का उन्माद दिया। विधर्मियों के विरुद्ध इस विजय अभियान को "जिहाद" का नाम दिया। जिहाद में भाग लेना प्रत्येक मुसलमान का पवित्र कत्र्तव्य बन गया। जिहाद में मजहबी, राजनीतिक, आर्थिक एवं सेक्स की प्रेरणाओं का अद्भुत मिश्रण विद्यमान था। जिहाद में मारा जाना सबाब बन गया।
जिहादियों का टिड्डी दल
इस जिहादी उन्माद को लेकर अरब सेनायें हजरत मुहम्मद की मृत्यु के दो वर्ष बाद 634 ईस्वीं में अरब के रेगिस्तान से बाहर निकलीं और तुरंत प्राचीन बेबिलोनिया सभ्यता के गढ़ इराक पर टूट पड़ीं। मजहबी, राजनीतिक सत्ता व आर्थिक लूट के घालमेल से बनी इस "शराब" का उन्माद इतना ताकतवर और आक्रामक था कि जिधर भी अरबी जिहादियों का यह टिड्डी दल जाता उधर ही सफाया हो जाता। पचिमी एशिया की सभी प्राचीन सभ्यताएं -इराक, सीरिया, फिलिस्तीन, पूर्व में स्थित फारस साम्राज्य, पचिम में अफ्रीका के उत्तरी तट पर स्थित मिस्र, लीबिया, मोरक्को आदि की सभी प्राचीन सभ्यताएं इस आंधी के सामने ढहती चली गईं। विजयी अरबी सेनाओं ने उन पर केवल अपना मजहब और राजनीतिक प्रभुत्व ही नहीं थोपा, बल्कि अपनी भाषा, वेशभूषा और संस्कृति भी आमूलाग्र थोप दी। प्रत्येक जीते हुए देश का अरबीकरण हो गया। 637 ईस्वीं में कुदेसिया के मैदान पर फारस के सम्राट की पराजय के बाद तेरह साल तक अरब फौजों ने पूरे विशाल फारस साम्राज्य पर अपनी उपासना पद्धति और संस्कृति को थोपने का अभियान जारी रखा। ईरान के जिन निवासियों ने जरथ्रुष्ट द्वारा प्रवर्तित अग्नि पूजा की अपनी प्राचीन उपासना पद्धति को त्याग कर इस्लाम पद्धति को अपनाना स्वीकार नहीं किया उन्होंने स्वदेश से भाग कर भारत में शरण ली। इन चौदह सौ वर्षों में भारत ने उस इस्लामी विस्तारवाद से अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए सतत् जूझते हुए भी ईरान से आये हुए उन शरणार्थियों को अपनी पूजा-पद्धति व परम्पराओं के साथ न केवल जीने, बल्कि भारत के राष्ट्र जीवन के उच्चतम शिखरों तक पहुंचने का भी अवसर प्रदान किया है।
फारस साम्राज्य को पदाक्रांत करते हुए यह अरबी आंधी सन् 650 ईस्वीं में भारत की पचिमी सीमाओं पर दस्तक देने लगी। भारत ने सहस्राब्दियों में बहुविध विविधताओं को समेटे हुए एक विकेन्द्रित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक जीवन का विकास किया था। यहां मनुष्य को अपने आध्यात्मिक विकास के लिए भी किसी भी रूप, किसी भी मार्ग से श्रद्धापूर्वक उपासना करने की पूरी छूट थी, सब रूप एक ही परमतत्व की अभिव्यक्ति है, उपासना के सभी मार्ग उसी तत्व तक पहुंचाते हैं, यह वि·श्वास जनमानस में गहरा बैठा हुआ था। सामाजिक जीवन भी कुल, जाति, देश और काल के अनुरूप आचार विचार, रीति-रिवाज के आधार पर पूरी तरह विकेन्द्रित था। आसेतु हिमाचल विशाल भूखंड अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र जनपदों और राज्यों में विभाजित था। चक्रवर्तित्व के लिए अनेक राज्यों में प्रतिस्पर्धा रहती थी। ऐसे विकेन्द्रित भारत की पचिमी सीमाओं पर उस काल में तीन राज्य विद्यमान थे, जिन्हें उन दिनों कोकान, जाबुल और काबुल के नाम से पुकारा जाता था। अरब सेनाओं के विजय रथ को रोकने का साहस उस समय किसमें था? ईराक, इरान, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, मिस्र, मोरक्को आदि सभी प्राचीन सभ्यताएं और विशाल राज्य अरब-आक्रमण के एक ही धक्के में भरभरा कर ढह गए थे। 712 ईस्वीं तक अरब फौजें पूरे पचिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका को जीत कर भूमध्य सागर को पार कर यूरोप में घुस गई थीं, फ्रांस के मध्य तक पहुंच गई थीं। एक खलीफा के अधीन यह उस समय के विश्व का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। इस अरब आंधी को भारत के तीन सीमावर्ती राज्यों ने सन् 879 अर्थात् पूरे 229 साल तक रोके रखा। नौवीं शताब्दी के मध्य तक अरब मैदान से हट गये और उनकी जगह नये मतान्तरित तुर्की मुसलमानों ने ले ली। प्रतिरोध का यह दूसरा चरण भी उतना ही विकट, उतना ही रोमांचकारी था। राजधानी पीछे खिसकती रही पर संघर्ष चलता रहा। काबुल से नन्दन, नन्दन से ओहिन्द, ओहिन्द से लाहौर राजधानी बदली गई। अन्ततोगत्वा सन् 1017 में लाहौर छिनने के बाद ही प्रतिरोध का यह चरण बन्द हुआ। पर यह पूर्ण विराम नहीं था। उसके बाद भी अनेक अध्याय लिखे गये। 1017 की सीमा रेखा ही 1947 में विभाजन रेखा बनी। और 2000 ईस्वीं में बामियान की शान्त बुद्ध प्रतिमाओं के खण्ड-खण्ड ध्वंस ने फिर से स्मरण दिला दिया कि सातवीं शताब्दी का आक्रमण अभी भी रुका नहीं है और हम अस्तित्व-रक्षा के लिए विकट रणक्षेत्र में खड़े हुए हैं।
अरब फौज का आत्मसमर्पण
यह वि·श्व इतिहास में प्रतिरोध का सबसे रोमांचकारी किन्तु सबसे अधिक उपेक्षित अध्याय है। भारतीय विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पाठ पुस्तकों में हमारे पूर्वजों के प्रतिरोध का यह प्रेरणादायी अध्याय पूरी तरह गायब है या फुटनोट से अधिक स्थान नहीं पा रहा है।
भारत की पचिमी सीमा पर स्थित राज्यों पर विजय अभियान का संचालन इराक की राजधानी बसरा को सौंपा गया। बसरा के अरब-गवर्नर अब्दुल्ला इब्न अमीर के आदेश पर रबी इब्न जियाद ने जाबुल राज्य के अधीनस्थ सीस्तान की राजधानी जरंग पर पहला आक्रमण किया जिसमें बड़ी संख्या में अरब मुजाहिदीन मारे गए। अरबों को तात्कालिक विजय मिली। पर शीघ्र ही सीस्तानियों ने उन्हें भारी हानि के साथ मार भगाया। तीन साल बाद 653 ईस्वीं में बसरा के उसी गवर्नर ने अब्दुर्रहमान को सीस्तान और काबुल को जीतने का हुक्म दिया। एक अरबी स्रोत "तरजुमा-ए-फुतुहात" के अनुसार "जरंग शहर के निवासियों ने बहुत विकट लड़ाई लड़ी किन्तु मुसलमान जीते और उन्हें लूट में भारी माल मिला।" बलाधुरी लिखता है कि "अब्दुर्रहमान ने जूर के मंदिर में घुसकर सोने की प्रतिमा की आंखों में लगे हीरों को बाहर निकालकर वहां के प्रबंधक के सामने फेंक कर कहा, अपने हीरे अपने पास रखो, मैं तो केवल यह बताना चाहता था कि इन मूर्तियों में तुम्हारी रक्षा का सामथ्र्य नहीं है।"
कर्बला के युद्ध में खलीफा अली की हत्या के बाद मुआदिया खलीफा की गद्दी पर बैठा (661-680 ईस्वीं)। उसने अब्दुर्रहमान को पुन: सीस्तान का गवर्नर नियुक्त करके काबुल को जीतने का दायित्व सौंपा। बलाधुरी के अनुसार, "एक महीने लम्बे घेरे के बाद अब्दुर्रहमान ने काबुल को जीत लिया पर काबुल के राजा की पुकार से भारत के योद्धा दौड़ पड़े और मुसलमान काबुल से खदेड़ दिए गए।" 683 में सीस्तान के गवर्नर याजिद इब्न जियाद ने काबुल पर पुन: हमला किया पर वह स्वयं ही जुनजा के युद्ध में मारा गया और उसकी सेना भारी हानि के साथ भाग खड़ी हुई। यहां तक कि सीस्तान भी अरबों के अधिकार से निकल गया और अरबों को हिन्दू राजा रनबल को अबु उबैदा की रिहाई के लिए हर्जाने के तौर पर 5 लाख दिरहम दिए गए। कुछ समय बाद मुस्लिम सेनानायक उमैर अल-माजिनी ने राजा रनबल की हत्या कर दी, किन्तु राजा के पुत्र ने संघर्ष जारी रखा। सन् 692 में खलीफा अब्दुल मलिक ने अब्दुल्ला को सीस्तान का गवर्नर नियुक्त किया। अब्दुल्ला ने बड़ी फौज लेकर जाबुल पर आक्रमण कर दिया। राजा ने रणनीति के तहत अरब फौज को बिना कोई प्रतिरोध किये अपने राज्य में काफी भीतर तक घुस आने दिया और फिर यकायक पीछे से सब दर्रों और पहाड़ी मार्गों को बंद कर के मुस्लिम सेना को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया। राजा ने अब्दुल्ला से लिखवा लिया कि वह भविष्य में कभी हमला नहीं करेगा और उसके राज्य में आगजनी या विध्वंस नहीं करेगा। इस अपमानजनक संधि को खलीफा ने मानने से इनकार कर दिया और अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया।
अब इराक का गवर्नर अल-हज्जाज बना। उसने उबैदुल्लाह के सेनापतित्व में विशाल सेना को सीस्तान भेजा और तुरन्त काबुल पर हमला करने का निर्देश दिया। अल-हज्जाज ने शर्त लगाई कि पूरे प्रदेश को जीते बिना उबैदुल्लाह उसे शक्ल नहीं दिखायेगा। उबैदुल्लाह पूरी ताकत लगाकर काबुल के नजदीक तक पहुंच गया किन्तु वहां राजा के कड़े प्रतिरोध के सामने उसे पीछे हटना पड़ा। उसके तीन पुत्र राजा के कब्जे में आ गए। उबैदुल्ला ने राजा को वचन दिया कि जब तक वह सीस्तान का गवर्नर है वह कभी हमला नहीं करेगा। इस संधि को बाकी अरब सेना नायकों ने नहीं माना। उनमें से एक थूराह ने तुरंत हमला बोल दिया पर वह मारा गया और अरब सेना बस्त के रेगिस्तान के रास्ते से भाग निकली। इस भगदड़ में बड़ी संख्या में अरब मुजाहिदीन भूख प्यास से व्याकुल होकर मर गए। अपनी सेना की इस दुर्दाश के सदमे से उबैदुल्ला भी मर गया। इस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए हज्जाज ने एक विशाल फौज तैयार की और 700 ईस्वीं में अब्दुर्रहमान के पास 40000 सैनिक सीस्तान भेजे, जिनके साथ अपनी सेना को मिलाकर तुरन्त काबुल पर चढ़ दौड़ा पर उसे भी पराजय का मुंह देखना पड़ा, जिसके लिए अल हज्जाज ने उसे दोषी ठहराया। उसे सूबेदारी से हटाने का निचय किया। इस बात की भनक लगने पर अब्दुर्रहमान की प्रतिक्रिया थी कि "काबुल को जीतने के बजाय बसरा को जीतना मेरे लिए आसान है।"
छल का सहारा
हज्जाज को सबक सिखाने के लिए उबैदुल्लाह ने हिन्दू राजा के साथ संधि कर ली। संधि की शर्ते थीं कि अगर अब्दुर्रहमान अल हज्जाज के विरुद्ध सफल रहा तो वह राजा को कर मुक्त कर देगा, उसके राज्य पर कभी हमला नहीं करेगा। और अगर अब्दुर्रहमान हार गया तो राजा उसे अपने यहां शरण देगा, उसे सुरक्षा प्रदान करेगा। अब्दुर्रहमान ने बसरा पर धावा बोल दिया, पर वह हार गया और उसे राजा के यहां शरण लेना पड़ी। हज्जाज का राजा पर दबाव बढ़ता गया। राजा को इस परेशानी से बचाने के लिए अब्दुर्रहमान ने पहाड़ से कूद कर आत्महत्या कर ली।
वि·श्व की सबसे बड़ी शक्ति के विरुद्ध इतने लम्बे और सफल प्रतिरोध के कारण राजा का नाम पूरे मध्य एशिया मे गूंजने लगा। बलाधुरी के अनुसार, अब्दुर्रहमान की असफलता के बाद हज्जाज ने राजा से संधि कर ली और कर के रूप में एक निचित राशि की एवज में हमला न करने का वचन दिया। राजा ने कुछ वर्ष कर दिया पर फिर बन्द कर दिया। खलीफा अल मंसूर (754-75) ने कर वसूलने की पुन: कोशिश की। इस प्रकार यह हार-जीत का खेल लम्बे समय तक चलता रहा। इस बीच अरबों ने मध्य एशिया की तुर्क जातियों को जीतकर उन्हें मुसलमान बना लिया। इस प्रकार उनका राज्य विस्तार हो रहा था- सैनिक सामथ्र्य बढ़ता जा रहा था। एक नव मुसलमान याकूब-इब्न लईस ने सीस्तान को जीत लिया। याकूब काबुल के शाही राजा का नस्ल-बन्धु था, क्योंकि काबुल के हिन्दू राजा की रगों में भी तुर्क रक्त बह रहा था। याकूब ने काबुल पर कब्जा करने के लिए छल का सहारा लिया। उसने काबुल के राजा को संदेशा भेजा कि "इस्लाम कबूलने के लिए मैं अपने ऊपर शर्मिंदा हूं और आपकी धर्मनिष्ठा, दृढ़ता व वीरता के सामने नतमस्तक हूं। मैं आपके र्दान करके आपको सिजदा (प्रणाम) करना चाहता हूं। मुझे वि·श्वास है कि आप मुझे यह मौका देंगे।" राजा फूलकर कुप्पा हो गया। उसने याकूब को भेंट करने की इजाजत दे दी। तब याकूब ने संदेशा भेजा, "मैं आपके सामने निशस्त्र आऊंगा किन्तु मुझे बहुत डर लग रहा है। कृपया मेरे सैनिकों को भी निशस्त्र आने की अनुमति दें।" राजा ने यह भी स्वीकार कर लिया। याकूब ने अगली मांग की कि "मेरे निहत्थे सैनिकों को घोड़ों पर बैठकर आने की इजाजत दें और अपने सैनिकों को भी निशस्त्र स्थिति में ही वहां आने दें।" काबुल के राजा ने यह प्रार्थना भी मान ली। याकूब अपने घुड़सवार सैनिकों के साथ राजा के सामने आया। उसने राजा को सिर झुका कर सिजदा किया, उसके उत्तर में जैसे ही राजा ने अपना सिर झुकाया याकूब ने छिपे हुए हथियार से राजा का सिर काट लिया और उसके घुड़सवारों ने अपने छिपे हुए हथियारों से काबुल के निहत्थे सैनिकों पर हमला बोल दिया। इस तरह 879 ईस्वीं में विश्वासघात के द्वारा काबुल पर मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हुआ। एक ही नस्ल के दो व्यक्तियों के चरित्र में इस भारी अन्तर को- एक विश्वासघाती दूसरा महावि·श्वासी- क्या हम उनकी पांथिक विचारधाराओं की देन मानें?
पर प्रतिरोध रुका नहीं। राजधानी काबुल से हट कर नन्दन पहुंच गई। तुर्की रक्त के शाही वंश की जगह ब्राह्मण वर्ण के शाही वंश ने ले ली। कल्लर से प्रारम्भ यह वंश राजा जयपाल, उनके पुत्र आनन्द पाल, उनके पुत्र त्रिलोचन पाल तक संघर्ष करता रहा। इस बीच एक बार सन् 1001 में उत्तर भारत के राजाओं ने चन्देल राजा विद्याधर के नेतृत्व में शाही राजाओं की मदद से संयुक्त युद्ध करने का भी प्रयास किया। पर शायद भाग्य साथ नहीं दे रहा था। राजा जयपाल जब विजय के निकट थे तब भारी अंधड़ ने उनकी व्यूह रचना को ध्वस्त कर दिया और राजा जयपाल ने पराजय के अपमान से दुखी होकर स्वयं को जलती चिता में भस्म कर लिया। कई नस्लों के शाही राजाओं की कई पीढ़ियों ने 650 से 1017 ईस्वीं तक जो लम्बा प्रतिरोध किया उसके कारण ही शेष भारत उस भयंकर बर्बादी से बच सका जो अरब और तुर्क मुसलमानों ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप के अन्य देशों में ढायी थी।द (8 अगस्त, 2007)
लेखक
देवेन्द्र स्वरूप

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